Sunday

उम्मीद


उम्मीद का तारा दूर गगन में , है सबको दिखता
लेकिन क्या वो तारा है मुझको तकता ?
जब भी देखूँ टिमटिमाते उसको 
आस करे गुदगुदी मुझको 
मानो आस हो उम्मीद की सखी 
संग संग जो खेले आँख मिचौली |

थाम कर हाथ आस का, जाऊं मैं उम्मीद को पकड़ने
चालाक उम्मीद बैठे छिप के खिड़की के पीछे 
खोल दरवाज़ा आहिस्ता , जाऊं मैं धीमे -धीमे 
दबे पाँव आस संग ढूँढूं मैं उम्मीद को 
बैठे जो दूर गगन में खिड़की के पीछे 

ज्यों ही खोलू मैं खिड़की 
त्यों ही उम्मीद मुस्कुराये 
और आस हिलौरें खाए |
तकूँ जब मैं दूर बैठी उम्मीद को
जानू मैं कही तो है इसको देखा पहले 
घुमा के नज़र देखूं जब आस को
तो पाऊँ ये तो है कुछ उम्मीद-सी 
आस लगे उम्मीद की परछाई |

समझ आये कुछ देर के बाद 
ओ बुद्धू ! ये उम्मीद ही तो है आस 
जो आस है, वही तो है उम्मीद 
जो लगे दूर वो सच में है पास 
बस नजरिये की है बात |

आज मिल कर उम्मीद-सी आस से
या यूँ कहूँ आस-सी उम्मीद से
हो रही है बहुत ख़ुशी 
क्यूंकि जिसको ढूंढा गली गली
मिली वो मुझको अपनी गली |




Öbrìgadò!
JJJ
 

9 comments:

  1. Cool. आस पीछा नहीं छोड़ती या फिर हम उसका ? ऐसा लगता है मानो ज़िन्दगी का दूसरा नाम आस ही है ! Keep up ur research in Writing....!!

    ReplyDelete
  2. You are getting better and better with every post!
    Very nice. Keep writing......

    ReplyDelete
  3. Hey Rockstar!
    Spreading smile as always <3

    ReplyDelete
    Replies
    1. Hey Dhanya!
      You always bring smiles to me :)

      Delete
  4. Yet again, A Masterpiece!

    ReplyDelete
  5. What you're saying is completely true. I know that everybody must say the same thing, but I just think that you put it in a way that everyone can understand. I'm sure you'll reach so many people with what you've got to say.

    ReplyDelete

Dont leave before leaving your words here. I will count on your imprints in my blogspace. :)