उम्मीद का तारा दूर गगन में , है सबको दिखता
लेकिन क्या वो तारा है मुझको तकता ?
जब भी देखूँ टिमटिमाते उसको
आस करे गुदगुदी मुझको
मानो आस हो उम्मीद की सखी
संग संग जो खेले आँख मिचौली |
थाम कर हाथ आस का, जाऊं मैं उम्मीद को पकड़ने
चालाक उम्मीद बैठे छिप के खिड़की के पीछे
दबे पाँव आस संग ढूँढूं मैं उम्मीद को
बैठे जो दूर गगन में खिड़की के पीछे
ज्यों ही खोलू मैं खिड़की
त्यों ही उम्मीद मुस्कुराये
और आस हिलौरें खाए |
तकूँ जब मैं दूर बैठी उम्मीद को
जानू मैं कही तो है इसको देखा पहले
घुमा के नज़र देखूं जब आस को
तो पाऊँ ये तो है कुछ उम्मीद-सी
आस लगे उम्मीद की परछाई |
समझ आये कुछ देर के बाद
ओ बुद्धू ! ये उम्मीद ही तो है आस
जो आस है, वही तो है उम्मीद
जो लगे दूर वो सच में है पास
बस नजरिये की है बात |
आज मिल कर उम्मीद-सी आस से
या यूँ कहूँ आस-सी उम्मीद से
हो रही है बहुत ख़ुशी
क्यूंकि जिसको ढूंढा गली गली
मिली वो मुझको अपनी गली |
Öbrìgadò!
JJJ
Cool. आस पीछा नहीं छोड़ती या फिर हम उसका ? ऐसा लगता है मानो ज़िन्दगी का दूसरा नाम आस ही है ! Keep up ur research in Writing....!!
ReplyDeleteThanks!
DeleteYou are getting better and better with every post!
ReplyDeleteVery nice. Keep writing......
Polishing myself :P
DeleteHey Rockstar!
ReplyDeleteSpreading smile as always <3
Hey Dhanya!
DeleteYou always bring smiles to me :)
Yet again, A Masterpiece!
ReplyDeleteThanks Sameer :)
DeleteWhat you're saying is completely true. I know that everybody must say the same thing, but I just think that you put it in a way that everyone can understand. I'm sure you'll reach so many people with what you've got to say.
ReplyDelete